Monday 29 June 2015

छत्रपति शिवाजी राजे भोसले (१६३०-१६८०) part2


मुगलों के साथ संघर्ष

उत्तर भारत में बादशाह बनने की होड़ खतम होने के बाद औरंगजेब का ध्यान दक्षिण की तरफ गया। वो शिवाजी की बढ़ती प्रभुता से परिचित था और उसने शिवाजी पर नियंत्रण रखने के उद्येश्य से अपने मामा शाइस्ता खाँ को दक्षिण का सूबेदार नियुक्त किया। शाइस्का खाँ अपने १,५०,००० फोज लेकर सूपन और चाकन के दुर्ग पर अधिकार कर पूना पहुँच गया। उसने ३ साल तक मावल मे लुटमार कि। एक रात शिवाजी ने अपने ३५० मवलो के साथ उनपर हमला कर दिया। शाइस्ता तो खिड़की के रास्ते बच निकलने में कामयाब रहा पर उसे इसी क्रम में अपनी चार अंगुलियों से हाथ धोना पड़ा। शाइस्ता खाँ के पुत्र, तथा चालीस रक्षकों और अन्गिनत फोज का कत्ल कर दिया गया। इस घटना के बाद औरंगजेब ने शाइस्ता को दक्कन के बदले बंगाल का सूबेदार बना दिया और शाहजादा मुअज्जम शाइस्ता की जगह लेने भेजा गया।

सूरत में लूट

इस जीत से शिवाजी की प्रतिष्ठा में इजाफ़ा हुआ। 6 साल शास्ताखान ने अपनी १५०००० फोउज लेकर राजा शिवाजी का पुरा मुलुख जलाकर तबाह कर दिया था। ईस् लिए उस् का हर्जाना वसूल करने के लिये शिवाजी ने मुगल क्षेत्रों में लूटपाट मचाना आरंभ किया। सूरत उस समय पश्चिमी व्यापारियों का गढ़ था और हिन्दुस्तानी मुसलमानों के लिए हज पर जाने का द्वार। यह एक समृद्ध नगर था और इसका बंदरगाह बहुत महत्वपूर्ण था। शिवाजी ने चार हजार की सेना के साथ छः दिनों तक सूरत को के धनड्य व्यापारि को लूटा आम आदमि को नहि लुटा और फिर लौट गए। इस घटना का जिक्र डच तथा अंग्रेजों ने अपने लेखों में किया है। उस समय तक यूरोपीय व्यापारियों ने भारत तथा अऩ्य एशियाई देशों में बस गये थे। नादिर शाह के भारत पर आक्रमण करने तक (1739) किसी भी य़ूरोपीय शक्ति ने भारतीय मुगल साम्राज्य पर आक्रमण करने की नहीं सोची थी।
सूरत में शिवाजी की लूट से खिन्न होकर औरंगजेब ने इनायत खाँ के स्थान पर गयासुद्दीन खां को सूरत का फौजदार नियुक्त किया। और शहजादा मुअज्जम तथा उपसेनापति राजा जसवंत सिंह की जगह दिलेर खाँ और राजा जयसिंह की नियुक्ति की गई। राजा जयसिंह ने बीजापुर के सुल्तान, यूरोपीय शक्तियाँ तथा छोटे सामन्तों का सहयोग लेकर शिवाजी पर आक्रमण कर दिया। इस युद्ध में शिवाजी को हानि होने लगी और हार कीसम्भावना को देखते हुए शिवाजी ने सन्धि का प्रस्ताव भेजा। जून 1665 में हुई इस सन्धि के मुताबिक शिवाजी 23 दुर्ग मुगलों को दे देंगे और इस तरह उनके पास केवल 12 दुर्ग बच जाएंगे। इन 23 दुर्गों से होने वाली आमदनी 4 लाख हूण सालाना थी। बालाघाट और कोंकण के क्षेत्र शिवाजी को मिलेंगे पर उन्हें इसके बदले में 13 किस्तों में 40 लाख हूण अदा करने होंगे। इसके अलावा प्रतिवर्ष 5 लाख हूण का राजस्व भी वे देंगे। शिवाजी स्वयं औरंगजेब के दरबार में होने से मुक्त रहेंगे पर उनके पुत्र शम्भाजी को मुगल दरबार में खिदमत करनी होगी। बीजापुर के खिलाफ शिवाजी मुगलों का साथ देंगे।

आगरा में आमंत्रण और पलायन

शिवाजी को आगरा बुलाया गया जहाँ उन्हें लगा कि उन्हें उचित सम्मान नहीं मिल रहा है। इसके खिलाफ उन्होने अपना रोश भरे दरबार में दिखाया और औरंगजेब पर विश्वासघात का आरोप लगाया। औरंगजेब इससे क्षुब्ध हुआ और उसने शिवाजी को नज़रकैद कर दिया और उनपर ५००० सेनिको के पहरे लगा दीय॥ कुछ ही दिनो बाद[१८ अगस्त १६६६ को] राजा शिवाजी को मार डालने का इरादा ओंरन्ग्जेब का था। लेकिन अपने अजोड साहस ओर युक्ति के साथ शिवाजी और सम्भाजी दोनों इससे भागने में सफल रहे[१७ अगस्त १६६६]। सम्भाजी को मथुरा में एक विश्वासी ब्राह्मण के यहाँ छोड़ शिवाजी बनारस, गया, पुरी होते हुए सकुशल राजगढ़ पहुँच गए [२ सप्टेम्ब‍र १६६६]। इससे मराठों को नवजीवन सा मिल गया। औरंगजेब ने जयसिंह पर शक करके उसकी हत्या विष देकर करवा डाली। जसवंत सिंह के द्वारा पहल करने के बाद सन् 1668 में शिवाजी ने मुगलों के साथ दूसरी बार संधि की। औरंगजेब ने शिवाजी को राजा की मान्यता दी। शिवाजी के पुत्र शम्भाजी को 5000 की मनसबदारी मिली और शिवाजी को पूना, चाकन और सूपा का जिला लौटा दिया गया। पर, सिंहगढ़ और पुरन्दर पर मुगलों का अधिपत्य बना रहा।
सन् 1670 में सूरत नगर को दूसरी बार शिवाजी ने लूटा। नगर से 132 लाख की सम्पत्ति शिवाजी के हाथ लगी और लौटते वक्त उन्होंने मुगल सेना को सूरत के पास फिर से हराया।

राज्याभिषेक

सन् १६७४ तक शिवाजी ने उन सारे प्रदेशों पर अधिकार कर लिया था जो पुरन्दर की संधि के अन्तर्गत उन्हें मुगलों को देने पड़े थे।
पश्चिमी महारष्ट्र में स्वतंत्र हिन्दू राष्ट्र की स्थापना के बाद शिवाजी ने अपना राज्याभिषेक करना चाहा, परन्तु ब्राहमणों ने उनका घोर विरोध किया। शिवाजी के निजी सचीव बालाजी आव जी ने इसे एक चुनौती के रूप में लिया और उन्होंने ने काशी में गंगाभ नमक ब्राहमण के पास तीन दूतो को भेजा, किन्तु गंगा ने प्रस्ताव ठुकरा दिया क्योकि शिवाजी क्षत्रिय नहीं थे उसने कहा की क्षत्रियता का प्रमाण लाओ तभी वह राज्याभिषेक करेगा | बालाजी आव जी ने शिवाजी का सम्बन्ध मेवार के सिसोदिया वंश से समबंद्ध के प्रमाण भेजे जिससे संतुष्ट होकर वह रायगढ़ आया | किन्तु यहाँ आने के बाद जब उसने पुन जाँच पड़ताल की तो उसने प्रमाणों को गलत पाया और राज्याभिषेक से मना कर दिया। अंतत: मजबूर होकर उसे एक लाख रुपये के प्रलोभन दिया गया तब उसने राज्याभिषेक किया। राज्याभिषेक के बाद भी पूना के ब्राहमणों ने शिवाजी को राजा मानने से मना कर दिया विवश होकर शिवाजी को अष्टप्रधान मंडल की स्थापना करनी पड़ी। विभिन्न राज्यों के दूतों, प्रतिनिधियों के अलावा विदेशी व्यापारियों को भी इस समारोह में आमंत्रित किया गया। शिवाजी ने छत्रपति की उपाधि ग्रहण की। काशी के पण्डित विशेश्वर जी भट्ट को इसमें विशेष रूप से आमंत्रित किया गया था। पर उनके राज्याभिषेक के 12 दिन बाद ही उनकी माता का देहांत हो गया। इस कारण से 4 अक्टूबर 1674 को दूसरी बार उनका राज्याभिषेक हुआ। दो बार हुए इस समारोह में लघभग 50 लाख रुपये खर्च हुए। इस समारोह में हिन्दू स्वराज की स्थापना का उद्घोष किया गया था। विजयनगर के पतन के बाद दक्षिण में यह पहला हिन्दू साम्राज्य था। एक स्वतंत्र शासक की तरह उन्होंने अपने नामका सिक्का चलवाया। इसके बाद बीजापुर के सुल्तान ने कोंकण विजय के लिए अपने दो सेनाधीशों को शिवाजी के विरूद्ध भेजा पर वे असफल रहे।

मृत्यु और उत्तराधिकार

तीन सप्ताह की बीमारी के बाद शिवाजी की मृत्यु अप्रैल 1680 में हुई। उस समय शिवाजी के उत्तराधिकार शम्भाजी को मिले। शिवाजी के ज्येष्ठ पुत्र शम्भाजी थे और दूसी पत्नी से राजाराम नाम एक दूसरा पुत्र था। उस समय राजाराम की उम्र मात्र 10 वर्ष थी अतः मराठों ने शम्भाजी को राजा मान लिया। उस समय औरंगजेब राजा शिवाजि का देहान्त देखकर अपनी पुरे भारत पर राज्य करने कि अभिलाशा से अपनी ५,००,००० सेना सागर लेकर दक्षिण भारत जीतने निकला। औरंगजेबने दक्षिण मे आतेही अदिल्शाहि २ दिनो मे ओर कुतुबशहि १ हि दिनो मे खतम कर दी। पर राजा सम्भाजी के नेतृत्व मे मराठाओने ९ साल युद्ध करते हुये अपनी स्वतन्त्रता बरकरा‍र रखी। औरंगजेब के पुत्र शहजादा अकबर ने औरंगजेब के खिलाफ विद्रोह कर दिया। शम्भाजी ने उसको अपने यहाँ शरण दी। औरंगजेब ने अब फिर जोरदार तरिकेसे शम्भाजी के खिलाफ आक्रमण करना शुरु किया। उसने अंततः 1689 में संभाजी के बिवी के सगे भाई ने याने गणोजी शिर्के की मुखबरी से शम्बाजी को मुकरव खाँ द्वारा बन्दी बना लिया। औरंगजेब ने राजा सम्भाजी को बदसुलुकि ओउर बुरी हाल कर के मार दिया। अपनी राजा को औरंगजेब ने बदसुलुकि ओउर बुरी हाल मारा हुआ देखकर सबी मराठा स्वराज्य क्रोधीत हुआ। उन्होने अपनी पुरी ताकद से तीसरा राजा राम के नेत्रुत्व मे मुगलों से संघर्ष जारी रखा। 1700 इस्वी में राजाराम की मृत्यु हो गई। उसके बाद राजाराम की पत्नी ताराबाई ने 4 वर्षीय पुत्र शिवाजी द्वितीय की संरक्षिका बनकर राज करती रही। आखिरकार २५ साल मराठा स्वराज्य के यूदध लडके थके हुये औरंगजेब की उसी छ्त्रपती शिवाजी के स्वराज्य मे दफन हुये।

शासन और व्यक्तित्व

शिवाजी को एक कुशल और प्रबुद्ध सम्राट के रूप में जाने जाते है हँलांकि उनको अपने बचपन में पारम्परिक शिक्षा कुछ खास नहीं मिली थी। पर वे भारतीय इतिहास और राजनीति से वाकिफ़ थे। उनने शुक्राचार्य तथा कौटिल्य को आदर्श मानकर कूटनीति का सहारा लेना कई बार उचित समझा था। अपने समकालीन मुगलों की तरह वह् भी निरंकुश शासक थ, अर्थात शासन की समूची बागडोर राजा के हाथ में ही थी। पर उस्के प्रशासकीय कार्यों में मदद के लिए आठ मंत्रियों की एक परिषद थी जिन्हें अष्टप्रधान कहा जाता था। इसमें मंत्रियों के प्रधान को पेशवा कहते थे जो राजा के बाद सबसे प्रमुख हस्ती था। अमात्य वित्त और राजस्व के कार्यों को देखता था तो मंत्री राजा की व्यक्तिगत दैनन्दिनी का खयाल रखाता था। सचिव दफ़ातरी काम करते थे जिसमे शाही मुहर लगाना और सन्धि पत्रों का आलेख तैयार करना शामिल होते थे। सुमन्त विदेश मंत्री था। सेना के प्रधान को सेनापति कहते थे। दान और धार्मिक मामलों के प्रमुख को पण्डितराव कहते थे। न्यायाधीश न्यायिक मामलों का प्रधान था।
मराठा साम्राज्य तीन या चार विभागों में विभक्त था। प्रत्येक प्रान्त में एक सूबेदार था जिसे प्रान्तपति कहा जाता था। हरेक सूबेदार के पास भी एक अष्टप्रधान समिति होती थी। कुछ प्रान्त केवल करदाता थे और प्रसासन के मामले में स्वतंत्र। न्यायव्यवस्था प्राचीन पद्धति पर आधारित थी। शुक्राचार्य, कौटिल्य और हिन्दू धर्म शास्त्रों को आधार मानकर निर्णय दिया जाता था। गाँव के पटेल फौजदारी मुकदमों की जाँच करते थे। राज्य की आय का साधन भूमिकर था पर चौथ और सरदेशमुखी से भी राजस्व वसूला जाता था। चौथ पड़ोसी राज्यों की सुरक्षा की गारंटी के लिया वसूलेजाने वाला कर था। शिवाजी अपने को मराठों का सरदेशमुख कहता थ और इसी हैसियत से सरदेशमुखी कर वसूला जाता था।

धार्मिक नीति

शिवाजी एक समर्पित हिन्दु थे तथा वह् धार्मिक सहिष्णु भी थे। उस्के साम्राज्य में मुसलमानों को धार्मिक स्वतंत्रता थी। कई मस्जिदों के निर्माण के लिए शिवाजी ने अनुदान दिया। हिन्दू पण्डितों की तरह मुसलमान सन्तों और फ़कीरों को भी सम्मान प्राप्त था। उन िक सेना में मुसलमान सैिनीक भी थे । शिवाजी हिन्दू संकृती को बढ़ावा देते थे। पारम्परिक हिन्दू मूल्यों तथा शिक्षा पर बल दिया जाता था। वह् अपने अभियानों का आरंभ भी अक्सर दशहरा के मौके पर करते थे

चरित्र

शिवाजी महाराज को अपने पिता से स्वराज कि शिक्शा ही मिली जब बीजापुर के सुल्तान ने शाहजी राजे को बन्दी बना लिया तो एक आदर्श पुत्र ती तरह उस्ने बीजापुर के शाह से सन्धि कर शाहजी राजे को छुड़वा लिया। इससे उनके चरित्र में एक उदार अवयव ऩजर आता है। उसेक बाद उन्होने पिता की हत्या नहीं करवाई जैसाकि अन्य सम्राट किया करते थे। शाहजी राजे के मरने के बाद ही उन्होने अपना राज्याभिषेक करवाया हँलांकि वो उस समय तक अपने पिता से स्वतंत्र होकर एक बड़े साम्राज्य के अधिपति हो गये थे। उनके नेतृत्व को सब लोग स्वीकार करते थे यही कारण है कि उनके शासनकाल में कोई आन्तरिक विद्रोह जैसी प्रमुख घटना नहीं हुई थी।
वह् एक अच्छे सेनानायक के साथ एक अछा कूटनीतिज्ञ भी था। कई जगहों पर उन्होने सीधे युद्ध लड़ने की बजाय भग लिया था। लेकिन येही उनकी कुट निती थी, जो हर बार बडेसे बडे शत्रुको मात देनेमे उनका साथ देती रही।
शिवाजी महाराज की "गनिमी कावा" नामक कुट निती, जिसमे शत्रुपर अचानक आक्रमण करके उसे हराया जाता है, विलोभनियतासे और आदरसहित याद किया जाता है।
शिवाजी महाराज के गौरव मे ये पन्क्तियान लिख गई है :-
"शिवरायांचे आठवावे स्वरुप। शिवरायांचा आठवावा साक्षेप।
शिवरायांचा आठवावा प्रताप। भूमंडळी ॥"

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